डॉ मिश्रा के नाम पर छप्पन करोड़ 50 लाख साल पुराने इन जीवाश्मों का नाम रखा गया है फ्रक्टोफसेस मिसराइ.
लखनऊ से फोन पर बीबीसी से बातचीत में डॉ मिश्रा ने इस पर खुशी जताई और कहा 'यह मेरे लिए अत्यंत खुशी की बात है. असल में कनाडा के गाय नरबोन और ऑस्ट्रेलिया के जिम गेहलिंग ने इस संबंध में घोषणा की है कि जो जीवाश्म मैंने खोजे थे उनका नाम मेरे नाम पर रखा जाएगा.'
डॉ मिश्रा बताते हैं कि उन्होंने ये खोज 1967 में की थी और कनाडा के जिस इलाक़े में उन्होंने ये जीवाश्म खोजे थे वहां कोई जाना नहीं चाहता था.
इन जीवाश्मों और इस इलाक़े के महत्व के बारे में वो बताते हैं ' ये जीवाश्म प्री कैंबियन काल के हैं. डार्विन ने 540 साल पुराने जीवाश्म खोजे थे और लेकिन उसके पहले के जीवन का कोई सबूत नहीं था. मैंने जो जीवाश्म खोजे उससे एक लिंक बना कि किस तरह जीवन आगे बढ़ा है. '
जिस स्थान पर डॉ मिश्रा ने ये जीवाश्म खोजे थे उन्हें मिस्टेकन प्वाइंट नाम दिया गया और कनाडा की सरकार ने इसे संरक्षित स्थान घोषित किया है.
अब सरकार कोशिश कर रही है कि इसे संयुक्त राष्ट़्र की विरासत क्षेत्र घोषित किया जाए ताकि कोई और वहां पत्थरों और जीवाश्मों को नष्ट न करे.
डॉ मिश्रा बताते हैं कि उनके पास अपनी खोज से जुड़े कुछ जीवाश्म अभी भी मौजूद हैं जिन्हें वो शोध पत्र लिखने के बाद भारत सरकार या विदेशी सरकार को दे देंगे ताकि और भी लोग इन्हें देख सकें.
गांवों के लिए काम
डॉ मिश्रा ने इतना महत्वपूर्ण कार्य किया है तो क्या उनको पहचान मिलने में देर हुई, वो कहते हैं ' नहीं नहीं ऐसा नहीं है, हर चीज़ का समय होता है. मैं नेचर और विज्ञान की अन्य पत्रिकाओं में लिखता रहा हूं तो वैज्ञानिक समुदाय जानता था लेकिन हां ये सही है कि पहली बार औपचारिक रुप से पहचान मिली है. देर आए दुरुस्त आए. '
इतनी बड़ी खोज करने के बाद भी डॉ मिश्रा उन गिने चुने लोगों में हैं जिन्होंने अमरीका में अपना फलता फूलता कैरियर छोड़ कर भारत वापस आने का फ़ैसला किया और कुमाऊं यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बने.
इस बारे में वो कहते हैं ' मैं गांव का रहने वाला था. दस दस किलोमीटर चलकर पढ़ने जाता था. उनका दर्द मैं समझता हूं. यही सोच कर मैं वापस आया कि गांवों में शिक्षा के लिए कुछ करुंगा और थोड़ा बहुत काम भी किया. '
डॉ मिश्रा और उनकी पत्नी ने ग्रामीण शिक्षा खासकर लड़कियों की पढाई की दिशा में काफी काम किया है.
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